अन्यौक्ति

रचनाकार:कमलानंद सिंह 'साहित्य सरोज'

जो तरूता को फल दियो छाया करि विस्तार। करत कुठाराघात तेहि इन्धन बेचन हार।। इन्धन बेचन हार कुटिल अति नीच स्वार्थ पर। ताहि कुठाराघात करत क्यो रे पायी नर।। गीसम रवि सँ तपित रहयों जब परम दीन अरू। आश्रय दियो ‘सरोज’ छाँह फल दे तब जो तरू।।

हल राखे सो कहा भौ हली धराये नाम। समता तू कै करि सकै संक वीर वलराम।। संक वीर वलराम साम्य तू कहा विचारी। वह सरोज हरि तात लोक प्रिय है भूधारी।। तू दारारत की वीच रहि कृषित कितवला। सुर समता को चहत धारि केवल कान्धेहल।।

मेरो अति उपकार तुम कीन्हो मम ढिंग आय। फल खायो सोयो दलन छन लौं मेरे छाय।। छन लौ मेरम हाय आय श्रमदूर कियो है। कवि सरोज भौ तृपित हमारो आज हियो है।। हम पथ तरु तुम पथिक भयो विधुरन के बैरो। जाहु आइद हौ वहुरि राखिहो सुमिरन मेरो।।