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[Act I.
ŚAKUNTALÅ.

अन० । महात्मा तुम्हारे पधारने से इस वन के धमैचारी भी सनाथ हुए ॥

(शकुन्तला कुछ लज्जित और मोहित सी हो गई और दोनों मखी कभी उस क्री ओर कभी राजा की ओर देखने लगी)

अन° ।। (हीले शकुन्तला मे) कदाचित आज कन्व घर होते॥

शकुं । तो क्या होता॥

अन० । इस पाहुने का आदर अनेक भांति करते ॥

शकु० । (रिस सी होकर) चल। परे हो। तेरे मन में कुछ और ही है। जा। में तेरी न सुनूंगी॥ (अलग ना बैठ)

दुष्य० ।। (जनसूया और प्रिपंचदा से) हे युवतियो अब में भी तुम्हारी सखी का वृतान्त पूछता हूं ॥

दोनों । यह आप का अनुग्रह है।॥

दुष्य० । कन्व ऋषि तो ब्रह्मचारी हैं। फिर यह तुम्हारी सखी उन की बेटी क्येकर हुई ॥

अन० । महाराज सुनो। कुशिक के वंश में एक बड़ा प्रतापी राजर्षि है ॥

दुष्य० । हां में ने जान लिया। तुम विश्वामित्र का नाम लोगी। में ने भी सुने हैं॥

अन०| उसी से हमारी इस सखी की उत्पत्ति है। और कन्व इस के पिता ऐसे कहाते हैं कि जब इस का नाल्न भी नहीं कटा या तब उन को वन में पड़ी मिली थी । और उन्ही ने पाली पोसी है ॥

दुष्य० । पड़ी मिली थी । यह बात सुनकर तो मुझे आश्चर्य होता है। अब इस की जड़ से उत्पत्ति कहीं॥

अन० । अच्छा सुनो। मैं कहती हूं। जब उस राजर्षि ने उय तप किया तब देवताओों ने शङ्का मान उस का तप ड़िगाने के निमित्त मेनका नाम अपसरा भेजी ॥