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[Act I.
ŚAKUNTALÅ.

मन अब तू इस के मिलने की चाह कर। तेरे संदेह का निवारण हो गया। जिस को तू जलती आग समझा था सो तो गले का हार बनाने योग्य रत्न निकला॥

शकु० । (रिस से होकर) अनसूया तू मुझे यहां ठहरने न देगी। ले। मैं जाती हु॥

अन° । क्येां काहे की जाती हे॥

शकु० ॥ में गौतमी से जाकर कहूंगी कि अनसूया मुझ से बकती है॥ (यह कहकर उठी)

अन० । हे सखी यह उचित नहीं है कि तू ऐसे पाहुने को विना सत्कार किये छोड़कर चली जाय ॥

(शकुन्तला ने कुछ उतर न दिया। चल खड़ी हुई)

दुष्य० । (ऐसे उठा मानो रोकेगा परंतु आप ही रुक गया फिर पाप ही आप कहने लगा) अहा कामी मनुष्यों की कैसी मति भङ्ग हो जाती है। देखो मैं ने तपस्वी की कन्या वो चलने से रोकना चाहा और आसन से खड़ा भी हो गया । कदाचित धर्म न संहालता तो कैसा होता॥

प्रि० । (शकुन्तला के निकट जाकर) सखी यहां से जाने न पावेगी ॥

शकु० । (पीछे हटकर और भौंह चढ़ाकर) क्यों न जाने पाऊंगी। मुझे कौन रोकनेवाला हे' ॥

प्रि० । सखी अपना वचन निबाहे तो। अभी तुझे दो रूख सीचने को और रहे हैं। इस ऋण को चुका दे। तब चली जाना ॥ (बल कर रोकती हुई)

दुष्य० । वृक्ष सीचने की घड़े उठाते उठाते तुम्हारी सखी थक गई है। देखो इस की बा शिथिल्न हो गई हं लाल हथेली अधिक लाल पड़ गई है छाती ध्रुकध्रुकाती है मुख पर पसीने केहे विन्दु मोती से ढरक रहे हैं चुटीला ढीला होकर कपोलेां पर अलकें विधुरती हैं तिन को एक हाथ से थाम रही है। यह ऋण मुझे ये चुकाने दो । (अंगूठी