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Act I.]
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ŚAKUNTALÅ.

प्रियंवदा को दी और दोने सखी मुद्री पर दुष्पन्त का नाम खुदा देखकर एक दूसरी की ओर चकित सी निहारने लगी) इस के लेने से तुम यह संकोच मत करो कि यह राजा की वस्तु है क्योंकि में भी तो राजपुरूष हूं। मुझे यह राजा से मिली है ॥

प्रि० । जो ऐसी है तो महात्मा इसे अपनी उंगली से न्यारी मत करो। तुम्हारे कहने ही से चट्टण चुक गया ॥ (मुसक्वाकर अंगूठी फेर दी)

अन० । हे सखी शकुन्तला इस महात्मा ने दया करके तुझे चण से छुड़ा दिया। अव चाहे तू चली जा॥

शकु० । (आप ही आप) जो में अपने बस में रही तो क्या इन बातो को भूल जाऊंगी। (प्रगट) जाने की आज्ञादेनेवाली अथवा रोकनेवाली तुम कौन हो ॥

दुष्य० । (शकुन्तला की ओर देखकर आप ही चाप) जैसा मेरा मन इस पद्मिनी से उलझा है वैसा ही इस का भी मुझ से अटका" दिखाई देता है। यही मनोरथ पूरा होने के उत्साह का कारण है। यद्यपि यह मेरी बात में बात नहीं मिलाती है तो भी जव में कुछ कहता हूं बड़े चाव से कान लगाकर सुनती है। मेरी ओर निधड़क खड़ी नहीं होती तौ भी उस की दृष्टि दूसरी ओर नहीं जाती है ॥

(नेपथ्य में) तपस्वियो आश्रम के जीवेॉ की रक्षा करो। राजा दुष्यन्त आखेट करता निकट आ पहुंचा है। देखो धोड़ों की खुरतार से धूल उड़ उड़कर तुम्हारे भीगे वस्त्रों पर जो वृछों के ऊपर सूख रहे हैं टीड़ी के समान गिरती है। हे तपस्वियो यह हाथी हमारी तपस्या के विघ्र की मूर्ति होकर तपोवन में चला आता है। देखो वृक्ष के गुद्दे को दांतों से तोड़ता और पैरों में लता का लङ्गर डाले घूमता आता है। देखो हमार तप में इस ने केसा विश्व डाल्ना है। हाथी के भय से हरिणों का फूंड तितर बितर हो गया है और यह रथ को देख डर गया है। इस से वन का नाश किये डालता है। (ऋपिकुमारियों ने कान लगाकर मुना फिर चैांक पट्टी)