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[Act I.
ŚAKUNTALÅ

दुष्य० । (आप ही आप) अरे इन पुरवासियों ने मुझे ढूंढते ढूंढते यहां अाकर वन में विश्न डाला। अब इन के पास जाना पड़ा॥

प्रि० । हे महात्मा अब तो हम को इस मतवाले हाथी से डर लगता है। आज्ञा दो तो अपनी कुटी की जांय ॥

अन०। सखी शकुन्तला तेरे लिये गौतमी अकुलाती होगी। आ वेग वेग चली आ जिस से" सब एकसंग प्रेम कुशल से कुटी में पहुंच ॥

शकु० । हौले चलती हुई आली मेरी तौ पसली में पीर होती है। मुझ से नहीं चला जाता॥

दुष्य० । हे युवतियो तुम डरो मत। निधड़क चली जाओ। में इस आश्रम में कुछ विम न होने ढूंगा ॥ (मव उठ खड़ी हुई)

{{gap}]दोनों । हे महात्मा जैसा तुम सरीखे पुरूषों का सत्कार होना चाहिये सो हम से नही बना है। इस लिये हम यह कहते लजाती हैं कि कभी फिर भी दर्शन देना॥

दुष्य० । ऐसा मत कहो। तुम्हारे देखने ही से हमारा सत्कार हो गया॥

शकु० । हे अनसूया एक तो मेरे पांव में दाभ की पैनी अणि लगी है। दूसरे कुरे की डार में अञ्चल उलझा है। नैक ठहरो तो। इसे सुलभा लू ॥ (दुष्यन्त की ओर देखती और ठिठकती हुई चली)

दुष्य० । (क्षाह भरकर) हाय ये तो सब गई। अब मैं कहां जाऊं । हे दैव प्यारी शकुन्तला से कुछ काल और भेट क्यों न रही। अब मुझ से नगर की ओर तो चला नहीं जाता है। इस से सायवालों को बिदा करके कहीं वन के नगीच ही डेरा करूंगा। शकुन्तला के हाव भाव देखने की लालसा मेरे हृदय से कैसे जायगी। शरीर तो आगे की चलता भी है परंतु मन पीछे ही रहा जाता है जैसे पवन के संमुख चलती पताका पीछे ही को उड़ती है।॥ (बाहर गपा)