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शकु । (रैस सी होकर प्रियंयदा से) चुप रहो चज्छल। तुम मुभ्क स इस दशा में भी हंसी करती हो॥ प्रि । (सनमूया की खार देखकर) हे श्रनसूया हरिशा का बछा मा को ढूंढता फिरता है। चलो उसे मिला दें॥ (दोनो चलों) शकु । सखियो मैं श्रकेली रही जाती हूँ। तुम में से एक तौ मेरे पास रहो। यहाँ कोई नहीं है॥ दोनों सखी। (मुसक्याकर) श्रकेली क्यों है। जो सब पृथी का रखवाला है सो तौ तेरे पास बैठा है॥ (दोनों गई) शकु । हाय मुभ्के श्रकेली छोडकर तुम से कैसे जाते बनता है॥ दुप्य । प्यारी कुछ चिन्ता मत कर। मैं तेरा टहलुश्रा बना हूँ। जो कुछ कहना हो सो कह। श्राज्ञा दे तौ शीतल कमल के पंखे से पवन भ्कलूं। कहै कोमल पैरों को श्रह में रखकर धीरे धीरे दाबूं॥ शकु । मैं बडों का श्रपराध न लूंगी॥ (उठकर चलने को मन किया) दुप्य । श्रभी दुपहरी कडी पडती है श्रौर तेरे शरीर की यह दशा है। ऐसे में इस शीतल सेज को जिस पर कमल के दल तेरे हिये को दाब रहे हैं छौडकर कठिन धूप कैसे सहेगी॥ (खैंचकर यिढाने लगा) शकु । छोडो छोडो। मैं स्वतन्त्र नहीं हूँ। ये दोनों सहेली मेरे साथ इसी लिये थीं कि कभी दूर न हों। परंतु क्या करूं॥ दुप्य । (साप ही श्राप) कहीं रिस न हो जाय॥ शकु । (सुनकर) तुम्हारा कुछ दोष नहीं है। श्रपने भाग्य का दोष है॥ दुप्य । ऐसे श्रच्छे भाग्य को क्यों दोष देती है॥ शकु । दोष क्यों न दूँ । श्रच्छे भाग्य होते तौ क्या मेरे मन को पराए गुशों पर लेभाकर बेबस कर देते॥ (चल दी) दुप्य । (श्रप ही साप) स्त्री को इतनी सामथ्य है कि विलध्म करके काम को मन ही में जला दे। परंतु पुरुष काम के ताप से श्राप जलता है। श्रब मैं श्रपने सुख को कैसे पाऊं॥ (शकुन्तला के निकट श्राकर श्राकुल पकडा)