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नहीं लगाना- यह दूसरी बात है। ऐसे सिद्ध सिरभाव कहलाते थे। सिरभाव किसी भी औजार के बिना पानी की ठीक जगह बताते थे। कहते हैं भाव आता था उन्हें यानी बस पता चल जाता था। सिरभाव कोई जाति विशेष से नहीं होते थे। बस किसी-किसी को यह सिद्धि मिल जाती थी। जलसूघा यानी भूजल को 'सूघ' कर बताने वाले लोग भी सिरभाव जैसे ही होते थे पर वे भूजल की तरंगों के संकेत को आम या जामुन की लकड़ी की सहायता से पकड़ कर पानी का पता बताते थे। यह काम आज भी जारी है। ट्यूबवैल खोदने वाली कपनियां पहले {ኽ§ अपने यंत्र से जगह चुनती हैं फिर इन्हें 畿辅 बुलाकर और पक्का कर लेती हैं कि पानी मिलेगा या नहीं। सरकारी क्षेत्रों में भी बिना कागज पर दिखाए इनकी सेवाएं ले ली जाती हैं। सिलावटा शब्द मध्य प्रदेश तक जाते-जाते एक मात्रा खोकर सिलावट बन जाता है पर गुण ज्यों के त्यों रहते हैं। कहीं-कहीं मध्य-देश में सिलाकार भी थे। गुजरात में भी इनकी अच्छी आबादी है। वहां ये सलाट कहलाते हैं। इनमें हीरा सलाट पत्थर पर अपने काम के कारण बहुत ही प्रसिद्ध हुए हैं। कच्छ में गजधर गईधर हो गए हैं। उनका वंशवृक्ष इंद्र देवता के पुत्र जयंत से प्रारंभ होता है। गजधरों का एक नाम सूत्रधार भी रहा है। यही बाद में, गुजरात में ठार और देश के कई भागों में सुथार हो गया। गजधरों का एक शास्त्रीय नाम स्थपति भी था, जो थवई की तरह आज भी प्रचलित है। पथरोट और टकारी भी पत्थर पर होने वाले सभी कामों के अच्छे जानकार थे और तालाब बनाने के काम में भी लगते थे। मध्य प्रदेश में पथरौटा नाम के गांव और मोहल्ले आज भी इनकी याद दिलाते हैं। टकारी दूर दक्षिण तक फैले थे और इनके मोहल्ले टकेरवाड़ी कहलाते थे। संसार है माटी का और इस माटी का पूरा संसार जानने वालों की सब साधनों से सन्मक्रा सन्माज १९ आज भी खरे हैं