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योगमठ के पथल- छतरी के नीचे बैठी गेलों छेलै।

“बाप रे, हौ केन्हों भयानक सपना छेलै।” वैं मठ के दीवारी से कोकड़ी टिकैतें हुऍ, कुछुवे देर पहलकों दिरिश के याद करलकै; "देखहैं, देखहैं आकाशों में की रं घन्नों घन्नों मेघ घुमड़ी ऐलो छेलै, जबकि अखाड़ी के अभी दूर-दूर तांय दरश नै छै। झाँड़ पड़ना शुरू होलै, तें चीर नद्दी ते देख-देख खोलें लागलै। कम-से-कम ससुराल में गोड़ राखला के बाद से तें वैं हेनों बोहों चीर में कभियो नै देखले छेलै। बोहों आवै छै जरूरे, गाँव आरो बस्ती कभियो नै डुबैलें है, मतुर आयको सपनावाला बोहों तें भगवान मसूदने जानै कि सतयुगों में होने ई नदी उमड़ै छेलै कि नै। उमड़ती होते, की पता। हुनी बतैले छेलै, ई चीर वहा क्षीरसागर छेकै, जै पर भगवान विष्णु के शेष नाग के शैय्या लागलों रहै। क्षीर सागर सूखते गेलै, आरो नद्दी बनी गेलै। तें, ई नद्दी जों वही रं फेनु से सागर बनिये उठै; प्रकृति के कॉन ठिकानों। कखनी खाई पहाड़ बनी जाय आरो पहाड़ कखनी खाई। तबे ऊ सपना झूठ केना हुऍ पारें ? आयको सपना में देखलों, कल आँखी के देखलों बनी जाय" आरी एतना सोचहैं सत्ती फेनु से सीधा होय के बैठी गेलै।

"हे भगवान, केन्हों ऊ दृश्य छेलै" की हेनों हुएँ पारें -ई सोच हैं ओकरा कंपकंपी छुटी गेलों छेलै, "चीर के बोहों पहले डाँड़ी से होले ऊ जोर तांय पहुंचलों छेलै आरो फेनु सब आरी-बारी तोड़ते पहले ते खेतों में घुसलो छेलै आरी वहीं से ऐंगना में बोहों के लहर उतरना शुरू होय गेलो छेलै। लगै छेलै; जेना तलवार के धार रहें, गाछ-बिरिछ के काटतें घरों के तरी से ही काटी के राखी देलें छेलै।

“जेठानी ऊ धार में बहे लागलों छेलै, बहॅ लागलों छेलै, ई देखी टुनुआ के कनियैनी हेलते हुए, हों, ओकरा हेलवे नी कहें पारौं, दीदी के भरी पाँजों पकड़लें छेलै आरो ठामें के आमों गाछी के धरी ले छेलै। हमरों दिस केकरों ध्यान छेलै, जों दादां नै देखतियै, तें तालाहै पुल में समाय के रही जैतियौं। हौ ते जेठो दां आपनों धोती कस्सी के बाँधिये पुल में छलांग लगाय देले छेलै, आरो हमरा बचाय लेली, गिरलों बांस लैक हेले लागलो छेलै। भैसूर नगीच आवी रहलों छेलै, ते देहों पर कपड़ा झब-झब राखे लागलियै, कि नींद खुली गेलै।”

सपना के ऊ सब बात याद करी के सत्ती जानें कोन दुनियां में