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लोगें समझै सिद्धिये ऐलो छै, होने के जे साधू के बोलावें आरो साधू घरों में नै रहें, तें सिद्धिये श्राद्ध आरनी के काम कराय आवै छेलै। ई एक्के रंग-रूप के कारणे माय-बापों के कभी काल परेशानियो होय जाय छेलै, यही से माय-बाबू के कहला पर सिद्धि कमीजो के भीतर कारों गंजी पहनना शुरू करी देलें छेलै, जे बात खाली घरे भरी के मालूम छेलै। घरों के बाहर तें हवौ कें मालूम नै छै।

अमरजीत गाँव में सबसे बेसी जो केकरों से चिढ़ छेलै ते सिद्धिनाथ आरो साधुनाथ सें। जों कन्हौं दोनों के वैं देखी लै, तें आपनों बनैलो कविता ई रं दुहरावें लागै कि जेना इस्कूली के पाठ सिहारतें रहें।

हेना के सिद्धि आरो साधु भी संस्कृत पाठ करै छै, मतरकि ओतने टा, जतना ओकरा दोनों के ओकरे बाबूं सिखैनें छेलै, ओकरा से एक शब्द आगू बोलै के कोय सवाले नै छेलै। फेनु जे बोलै छेलै, ओकरों मानै भी नै जानै छेलै। ई तें सिखायवाला के दोष छेलै कि ओकरों अर्थ नै बतैलें छेलै। हिन् अमरजीत गाँव भरी में सब में ज्यादा पढ़लों-लिखलों गिनलों जाय छेलै। जेकरों बापे खुद संस्कृत के मास्टर, भला ओकरों बेटा केना नै संस्कृत बोलतियै, मंडन मिश्र के ते सुगवो संस्कृत बोलै छेलै। से आपनों विद्या के बलों पर अमरजीत ने संस्कृत के एक श्लोक में हेर-फेर करी के एक नया श्लोक बनाय लेलें छेलै आरो जहाँ सिद्धि साथै साधु के देखै कि बोलना शुरू करी दै,

सिद्धि साध्ये सध्यामस्त मधुवा चधुर्जटे तालापुलेन गृहं अस्ति हरमुनियम जानसि कला

ई श्लोक सुनि, सिद्धि आरो साधु के कुछ-कुछ हेनों बुझावै कि ई कविता हुऍ-ने- हुऍ ओकरे लेली अमर ने बनैलें छै, से एक दिन दोनो पंचपुरा इस्कूल पहुँची गेलों छेलै आरो के हू-ब-हू श्लोक गन्हौरी गुरुजी के सुनाय के पूछले छेलै, "की हेनों श्लोक संस्कृत के किताब में छै, गुरुजी?” आरो गन्हौरी गुरुजी के है कहला पर कि पंचतंत्र के संस्कृत किताब यह श्लोक से शुरू होय छै, दोनों निचिन्त होय गेलों छेलै। दरअस्ल गुरुजी ने श्लोक के एकाधे शब्द सुनी के आपनों निर्णय दै देलें छेलै। बाकी सुनै के हुनी जरूरते