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की बोलतियै, टटिया पर टांगलों कविताहै पढ़े लागलै। सबसे पहलें तें सामन्हैवाला दीवारी पर नजर गेलै, जै पर दू तखती टंगलों रहै, एक पर लिखलों छेलै,

नमक महीन मिलाय के वैमें करवों तेल रोजे मलै, ते दर्द मिटै, छुटियो जाय सब मैल आरो दोसरा में, नीमी दतमन जे करै भुनलो हर्रो चबाय वियारी नित करै ऊ घर वैद्य नै जाय ।

अभी विसुनदेव महतो बायांवाला दीवारी दिस घुरवे करतियै कि आशुतोष बाबू आवी गेलै । कहलकै, “की पढ़े छै, विसुनदेव ? पढ़ी ला, पढ़ी ला ! बाद में जे पूछना कहना होतौं, कहियों । पहिले दायांवाला दीवारी पर लिखलों देखें, की लिखलों छै । तोरा सिनी वास्तें किताबे लिखी के रखी देलें छियौ ।

हुनी इशारा करलकै, तें विशुनदेव पाँच गत्ता के जोड़ी के बनैलों तखती पर लिखलों पढ़ना शुरू करलकै,

फागुन शक्कर जों कोय खाय चैते औरा आरो चबाय, बैशाखों में खाय करेला जेठें दाख, आषाढ़ केला सावन हर्रो, भादों चीत आसिन मास गूड़ खाय मीत कातिक मूली, अगहन तेल पूसमास में दूध से मेल माघों में घी-खिचड़ी खाय फागुन में जे भोरे नहाय ओकरों घर पर वैद्य नै जाय ।

आखरी पंक्ति पढ़ी के मुस्कैर्ते हुऍ विसुनदेव नें वैद्य आशुतोष बाबू के देखलकै, तें हुनी कुर्सी पर दोनों टांग चढ़ाय चुकुमुकु बैठते पुछलकै, "ते आबे बतावों, कथी लें ऐलो छो ?" { “की कहियौ वैद्यबाबा, उदसिया के खुजली तें छुटवे नै करै छै,