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“कैन्हें, की भेलै ?” आशु बाबू अबकी आँखी पर से गोल फ्रेमवाला चश्मा उतारी के टेबुलों पर राखी देले छै, आरो जखनी हुनी चश्मा उतारी दै छै, तें आँख बड़ी छोटों दिखावे लागे छै, तखनी हुनी आँख फाड़िये-फाड़िये के सामना के चीज देखै के कोशिश करै छै । ई कोशिश में हुनको कपारों पर रेखा सिनी के ढेरे धनुष बनी जाय छै ।

बात के समझते हुए विसुनदेव बिना आरो देर कर है कहना शुरू करी देलकै, 'वैद्यबाबा, नैकी यानी सत्ती बोदी के कोय आपनों भाय तगेपुर में रही छै की ?”

“हों, रहै छै ।”

“हुनी शायत वांही जगदीशपुर इस्कूल में गुरुओ जी छेकै ।”

“हों छेकै ।”

“तें, हुनकै कन नी अमरजीत के छोड़ी ऐलो छै, पढ़ लें । सुनै छियै, हुनको डांट-डपट आरो मरखन्नों स्वभाव के कारण एक दिन भोरे भोर अमर यहाँ आवै लें मोटर गाड़ी पकड़ी लेलकै । टिकट के पैसा छेलै कि नै छेलै, के कहें पारें । जबें मामा के घरों से भागलों छेलै, तें नहिये होतै, आरी की समझी गाड़ी के भीतर नै बैठी के ओकरों छत्तो पर बैठी रहलै । यहूं सोचलें रहें कि इस्कूली बच्चा समझी के पैसा नै माँगतै ।”

“आगू की होलै, से नी बतावों ।”

"वही तें बताय रहलों छियौं, बाबा। ठिक्के टिकिटवालां बच्चा-बुतरु समझी के नै टोकले छेलै, मतुर संयोग देखों । वही गाड़ी में हुनको तगेपुर वाला मामाओ सवार छेलै । सवार छेलै, तें छेलै, मतुर देखों संयोग कि अमरजीत के नजर मामा पर पड़ी गेलै । केना पड़ी गेलै, है तें नै बतायें पारौं । हुवें सकै छै, गाड़ी के भीतर में हुनी केकरौ से बात करते रहें, जे अमर सुनी ले रहें; सुनी लेलें रहे ते शंका मिटाय लें झाँकलें रहें । मामा खिड़किये लुग बैठलों रहै । जे भी हुऍ, अमर जेन्है जानलकै, कि गाड़ी में मामा बैठलों छै, ओकरों देहों में तें थरथरी घुसी गेलै । सोचले होते आबें करौं की ? शायत मामा के नजर ओकरा पर पड़िये गेलों होते। है बात के ठियां के छेकै, ई बताय दियौं, बाबा ?”

"कै ठियां के छेकै?"

"जगदीशपुर से जेन्है टेकानी दिस बढ़ छौं नी । दसे कदम के बाद \