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"नै, मनझमान कथी वास्तें | कोय काम नै छै, ते हेन्है के चुपचाप बैठलों छियै, आरो की ।”

“ नै दादा । होन्है के बैठवों आरो कुछ चिंता में बैठवों, दोनों के तरीका अलग-अलग होय छै । खैर, कुछु पता लागलौं कि सत्ती बोदी कहाँ कहै के मतलब कॉन भाय कन छै? भाइयो में बड़के भाय कन की? बेसी तें एकरे उम्मीद रहै छै । घरों में बताय के तें नहिये गेलो होथौं ।” सकीचन कहें-कहें बरण्डा के एक कोना में पड़लों मचिया के खीची के वैपर बैठी रहलों छेलै, आरो आपनों बातों के राग कसते आगू कहले छेलै, "दादा, तोहें तें ढोलक-ऊलक बजावै नहिये छौ, तें ढोलक बा में कुछ नहियें जानतें होभहौ । देखों दादा, ढोलक के दू मूँ होय छै, जे मुँहों से संगीत फुटै छै नी, दिन - दिन धिन धिन, ताक-ताक धिन्ना, ऊ मुँह नर कहाय छै । जानै छौ बड़का दा, नर एत्ते सुन्दर आरी साफ कैन्हें बोलें पारै छै, कैन्हें कि ओकरी मन ते ऊ मसालावाला मुँह नाँखी होय छै, जे खाल के भीतरी सॅ लगैलों जाय छै। नर के मन के दूरे से पहचानलों जावें सकै छै आरो मेदी के मॉन के पहचाननै मुश्किल, ढोलक के जे मुँह मेदी कहावै छै नी, वहाँ मसालावाला भीतरी मॉन नै, ते आवाजी होने गोल-मटोल । ओना के सब्भे जनानी के मॉन आरो ढोलक के मेदीवाला मुँहों में कोय अंतर नै, मतर सत्ती बोदी तें ढोलक के मेदिये वाला मुँह ही बूझों। की आवाज निकलै छै, की अरथ भेलै, समझनै मुश्किल । की कहतौं, कहाँ जैथौ, ई तें समझवों आरो मुश्किल । की है बात झूठ छेकै, बड़का दा?" सकीचन ने आँख के एकोसी करते हुए आशु बाबू के देखले छेलै ।

"ढोलक के तें बात नै कहें पारौं, मतर बलजीत - माय के सोभावों के बारे में कुछ पता लगाना बड़ा मुश्किल ।" ई कहते हुऍ आशु बाबू आपनो दोनों टांग काठवाला कुर्सी पर चढ़ाय के चुकुमुकू बैठी रहलो छेलै ।

हेना बैठै के मतलबे छै कि हुनी सामनावाला के बातों पर गौर करलें छै। ई बातों के सकीचन भी खूब बूझी रहलों छेलै, से बातों के आगू बढ़ाय में वैं कटियो टा कसर नै करले छेलै, “खैर, ई बात तोहें कहों कि नै कहाँ, मतर है तें जानले बात छेकै कि बोदीं घरों में केकरो कुछ नै बतैलें होलें होथौं, मतर गाँवों में खिरनी धनुकायन छै नी, ओकरा सब मालूम छै । टाडूढीवाली कें, वही कही रहलों छेलै कि.... ।”