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जानी के आना छै” ई कहीं वैं दू दाफी चुटकी बजैलें छेलै आरो आगू बढ़ी गेलों छेलै ।

आशु बाबू के आँख परछत्ती दिस उठी गेलों छेलै । मतुर हुनी परछत्ती नै देखी रहलों छेलै, देखी रहलो छेलै - चतुरानन मिसिर आरो अमरजीत के माय के बबुआन टोला के शिवाला वाला चबूतरा पर बतियैर्ते ।

(१३)

"प्राती के माय, तोहें कुछ सुनलौ ? बोमाँ गाँव ऐलों छेलै । चतुरानन मिसिर से मिली के लौटी गेलै । घरो आवै के जरूरत नै बुझलकै, जेना गाँव-घरों से कोय रिस्ते नै रही गेलों रहें । जों है सहिये बात छेकै, ते एकरा के अच्छा कहते ?”

"सुनलें तें हम्मू छियै, मतुर कुछ सोचिये के हम्मे तोरा नै कहलियौं । हेन्है के तोरों तबीअत कोन अच्छा रहै छौं, ऊपर से बोमाँ के हेनों सब बातों से दुक्खे मिलैवाला छै, कोन खुशखबरी छेकै, जे तोरा कहतियौं । पता नै, हेनों कैन्हें होलों जाय रहली छै, दिन प्रतिदिन “तबीअत तें ठिक्के में अच्छा नै रहै छै । हमरे दवाय हमराहै धोखा दै रहलों छै । मतुर ठीक होय जैवै, देर-सवेर लागें भले । एक गिलास पानी दीयों तें, गोली निगली लियै ।” ई कही आशु बाबू ऐंगनाहै के देहरी पर बैठी रहलै ।

प्राती - माय उठी के घैलसरों तांय गेलों छेलै आरो एक गिलास पानी लानी के हुनकों हाथों में थमाय के नगीचे देहरी पर बैठी रहलों छेलै ।

आशु बाबूं आपनों छोटों रं झोली सें, जे हुनको बायां कान्हा से लै के दायां डाँड़ों तांय नीचे लटकले रहै छेलै, से गोली के शीशी निकालले छेलै आरो एक गोली के मुँह में राखी, मुँह के कुछ ऊपर करले छेलै, फेनु गिलास के बिना मुँह से लगैनें पानी मुँहों में हौले-हौले गिरतें गेलों छेलै, गोली निगलला के बादो । प्राती - माय रों आँख आशु बाबू के कंठों पर तब तांय