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छौं की नै, तब तांय आपनों घरों में अन्न नै ग्रहण करै, है बात की सौ पचास बरसों के थोड़े छेकै, बोदी, बस बीस-पच्चीस बरसों के तें बात छेकै । आरो तोंही केकरों लें की नै करलें छौ, बोदी । जेहनों आपनों छोटों-छोटों दोनों भाय के लानी के सेवा सुसुरसा करलें छौ, के करै छै हेनों । तोहें तें सिद्ध करी दे छौ कि बड़ी बहन छोटों भाय लें दूसरी माय होय छै । ई वक्ती आखिर दोनों भाइयो तें मदद करवे नी करतौं । बाप रे बाप, हम्मे आपनों आँखी से देखले छियै, तोरों मंझला भाय के देह-हाथ रोगों से केन्हों होय गेल छेलै । धन्य कहौ बड़ों दा के, कहाँ-कहाँ से जड़ी-बूटी लाने और धन्य तोरों रं बहिन की रं घाव के धोय धोय के जड़ी-बुटी लगाय छेलौ । तें, दोनों छोटो भाय की हौ सब भूली गेलो होतौं ? जों भूलिये गेलो होतौं, तें की, दौलतपुर छै की नै ! टाकाहै की धन-दौलत होय छै, बोदी? दिलो दौलत होय छै, आरो जों दिल छै, तें सब कुछ हासिल, जों यहा नै छौं, तें सब रहतौं कुछ नै ।... की खाली भाइये के ? टोला के हेनों कॉन घोर होते जेकरा दुक्खों में तोंय समांगों से साथ नै देलें छौ, टोलाहै के ? गाँव भरी के कहों नी । है बात गाँव-टोला भूललो नै छै, बोदी। जरूरत पड़तै, ते गाँव भरी ऐंगना में ठाढ़ों मिलथौं, जेकरों शायत जरूरते नै पड़तै.... मतुर है हम्मे कहाँकरों बात कहाँ उठाय के लै आनलियै । तबें तें एकरों मतलब यही न होलै बोदी, कि ई महीना के खतम होते-होते गीत - नाद शुरू ! फेनु महीना खतम हुवै में कत्ते दिन आरी छेवे करै ? दस दिन, जे देख-देख फुर्र होय जैतै, दिन तें चील के उड़ान बूझों। होनै के गोसांय-देवता के गीत तें कहें-परसू से शुरू होय जैतै; नै बोदी? ई अलग बात है कि गोसांय- देवता के गीत गावै वक्ती शबरी - माय के ऐंगना में अभाव जरूरे खलतै ।”

"कैन्हें, की भेलै शबरी - माय कॅ?" सत्ती हठासिये चौकी पड़लों छेलै । देलकै ।”

“होलों तें कोय खास नहियें छेलै, बस विहान होथैं गाँव छोड़ी देलकै।

"तहियो ?”

“घरों में कचकचों तें करिये नी रहलों छेलै, पुतुहैं। कभी हड़िया अलग करी लै, कभियो भाय साथें नैहरा भागी जाय, आरी कभियो रात भरी शबरी से कचकचों करते रहै, एक दिन सुनलियै कि पुतुहें एत्तें शबरी - माय