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के ऐंगनाहै में बोदीं बिछाय देलें छेलै, वै पर वहो सुगनियो बैठली छेलै, जेकरा ऊ घरों में कभियो पुरानों होते नै देखले छियै । ठीक कहै छियौं दीदी, आरो गाँव के तें नै कहें पारियौं, मतुर आपनों गाँव अभियो वहा रं - वही गाँव छेकै । कहै के सत्ती बोदी सबके खटिये पर बैठे लें कही रहलों छेलै, मतुर जे भी जनानी आवै, बस देहरी पर जमी के बैठी रहै, आरो देहरियो की भरैवाला छेलै, उत्तर, दक्खिन, पच्छिम तीनो दिस देहरिये - देहरी । गनगनाय रहलों छेलै बोदी के ऐंगनों । हेनों दिरिश शायते हम्में ऊ घरों में कभियो देखले होभे, पूजा-पाठ के बात अलग छै । आरो पहिलो दाफी यहू देखलियै कि बड़की बोदी से हुनी हर पांचे मिनटों में की रही रही बात करै, जेना कहीं कोय भेदे नै रहें, दीदी।”

“भगवान करें, यही बात हुऍ, मतर बासमती, आबें समैय्ये बतैतै कि ई असमय के बारिश कर्ते नमी दिऍ पारतै; दिऍ पारतै कि छिमिहन के बर्बाद करी के छोड़तै ।"

“तोरों शंका बेकारो नै कहलो जावें सकें । है ते हम्मू जानै छियै कि सत्ती बोदी के मॉन आय तांय कोय नै जानें पारले छै । है नै कि हुनी काँही से केकरों प्रति दुराव भाव राखै छै, है तें कभियो नै, भगवान करें सब जनानी के सोभाव हेने हुए, मतुर कीय बात बोदी के मनों में जों कुछु के गत्थी जाय, ते ई बात हुनी कभियो भूले नै पारै, आरो यही हुनका जेठों-बैशाखों के हवा- बतास बनाय दै छै । आरो तखनी केकरों नै देह-हाथ झुलसी जाय ।”

“आबे एतें बात कथी लें सोचना छै । सत्ती बोदी के अगहनी धान रं लहलहावें, आरो की । घोर-परिवार लें बोदी भले कुछ रहें, गाँव-टोला लेली ई बोदी तें मरला धानों पर झमझम बरखा ।"

“से तें सहिये में । आरो एक बात जानलौ कि नै ?”

“की?"

“चमत्कारे कहाँ । हिन्ने ई बोदी गाँव लौटलै आरो दोसरे दिन शबरियो- माय । छेकै नी चमत्कार ! कहै छै, सत्ती बोदी आपन्है से बोलाय लें गेला छेलै, भला बोदी आपन्है सें जाय, तें रुसै- गोस्सावै के समैये कहाँ बचै छै । ऊ ते हम्में कल्हे जाने पारलौं कि फूल के बीहा पक्की होय गेलो छै के आरो है वक्ती शबरी - माय के गीत नै गूंजे, ते वहा भेलों कि बिना गोटा फुलैलै, अमराई के बिना मंजरलै आरो कोयली के बिना बोललै, चैत में