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तेरह भुवन,

चौदह हजार,

पन्द्रह तिरीश,

सोलह सिंगार,

सत्रह संत,

अठारह पुरैत,

उन्नीस काया,

बीस बोर,

जाहीं मन होलों वाहीं घोर।

घरों के ई माहौल देखी के सत्ती के आरो कुछ दिस ध्याने नै जाय, जाय ते बस कुछुवे देर लेली। यहू बात छेलै कि भोरे - साँझ के ई पढ़ाय से ओतना टा टोला - पड़ोस से चौर - दाल, तरकारी आरनी आविये जाय कि ओकरा खाली आँचे भर के चिंता करै ले लागे। ऐंगनों ते साँझकिये से झकझक करें लागै, जे आवै- लालटेन लइये के आवै।

मतर आयकल सत्ती के जे चिंता बेसी बढ़ी गेलो छै, ऊ अमरजीत के बीहा के बात लैक। ओकरे बड़की बहिन के छोटका बेटा हीरू ऐलों छेलै। कही गेलों छै, “मौसी, ई घॉर छुटी गेलौ, तें यही बूझिहै, कि हेनों घोर आरो हेनों लड़की फेनु दोसरों नै मिलतौ। की सोचै हैं, ऊ परिवार ई घरों में बेटी देवो करतियै की; ऊ तें बिना दहेज के बीहा के बात छै, यै लेली मॉन बनैलें छौ। होना के दहेजो दैकें होनों लड़की मिली जाव, ते भागे बूझें, मौसी। जल्दिये बतैय्यै, जे सोचवे। लड़कीवाला रुकै लें तैयार नै छै, तीन जगह लड़का देखले छै, सब कमियां, दू तें रेलवे में कामे करी रहलों छै, अमरजीत के तें लागतौ - दिल्ली दूरे बूझों। कै किसिम के जाँच होना बाकिये छौ; तब् नी। आरो हों, मौसी, हम्में रुकवौ नै। जानवे करै हैं, सरकारी नौकरी में एक्को दिन के छुट्टी मुश्किल।”

सत्ती के आपनों फैसला यहीं रविवार के सुनाना छै, बस आरो दू-तीन दिन बचलों छै। एक दाफी ते ओकरों मॉन करलै कि वैं, भैसूर से ई संबंध में सलाह-मशविरा करी लै। एक दाफी तें मिलै लें घरों से ऊ निकलवो करलै, मतुर डेढ़िया तांय ऐतें - ऐ रुकी गेलों छेलै। मने-मन सोचलें छेलै, "जो इखनी हुनका सें