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"बस नदी के एक जोर सवा बिघिया जमीन दिस बढ़वाय देना छै, जोरिये के पानी से आधों जमीन पटवाय देवै, जे कुछ उपजौ कि नै उपजौ, खेतों पर हक तें बनलों रहते। ”

“अहे बोदी, घोर अन्हार बनाय के कैन्हें राखलों छै" सकीचन - माय एंगना में गोड़ राखौं कहले छेलै, “अगे माय, संझवाती के बेरो तें होय चल्लों छै, लालटेन कैन्हें नी जरैलों छो, बोदी? किरासन तेल छौ तें? तबीअत ठीक छौं, तें? रुकी जा हम्मी जराय दै छियौं।” सत्तियो के ध्यान ऐंगना दिस गेलै, ते ऊ धड़फड़ाय के उठलों छेलै आरो कपड़ा बदलै लें एक कोना पकड़ी लेलें छेलै, तब तांय लालटेन के रोशनी देहरी से टघरी के ऐंगन दिस बढ़े लागलों छेलै।

(२५)

दस दिन से बेसिये होय रहलों होते। आशु बाबू के दुआरी पर पहिलो नाँखी आवै जावैवाला के कमी आवी गेलों छेलै। जों कोय ऐवो करै, ते कुछ देर बैठी के लौटी जाय।

असल में आशु बाबू के कुछ कहना रहै छै, ते आबें लेटले-लेटले इशारा से कही दै छै नै तें बस ओघरैले पटैल रहै छै।

सत्तियो ई बातों के गमी रहलों छेलै। दिनों में दू-एक दाफी तें घरों से बाहर निकलवे करै छेलै, आरो लौटै वक्ती एक दाफी कोनराय के ऊ बरन्डा दिस जरूरे देखी लै छै, जैठां आशु बाबू के बिछावन लगाय देलों गेलों छेलै।

है नै कि बरन्डा पर हुनको बिछावन नया-नया लगैलो गेलों छेलै, बीस बरसों से हुनको बिछावन यहीं पर लगे छे, एक चटाय पर मोटो रं सतरंजी आरो वही पर एक चद्दर। पहिले ई बिछावन भोर होल्है मोड़ी के राखी देलों जाय छेलै, मतर जहिया से हिनको मौन दब होलों छै, बिछावन नै उठै छै । खाली दू-एक दिन के बाद चद्दर बदली देल जाय छै।