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के बोरिया पर संभारी के आपनों गोड़ राखले छेलै; फेनु दीवारी के सहारा लेते ठाढी होय गेलो छेलै।

बड्डी संभली के वैं चुटकी के बगरो-बच्चा के खोता में उतारी देलें छेलै, आरो वहा रं दीवारिये के सहारा लेतें बोरिया पर से नीचे उतरियो गेलों छै।

वैं लालटेन उठाय के देखलकै, खोता में चीं-चीं के आवाज फेनु से हुऍ लागलों छेलै, आरो धरानी पर बैठलों दोनों बगरी शांत होलै। बारी-बारी से खोता दिस उड़ी के फेनु धरानी पर बैठी जाय। सत्ती कुछ देर तांय ई सब देख रहलै आरी फेनु लालटेन देहरिये पर राखी के भोरकवा उगै के प्रतीक्षा करें लागलै।

(२७)

पहाड़ों पर रहते हुए सत्ती के तीन दिन बीती रहलो छै। गांवों में ई बातों के लैकें खूब गलगुदुर होय रहलों छेलै, कि आखिर सत्ती बोदी गेलै, तें गेलै कहाँ ? ई बात तें गाँव के अधिकांश लोगें जानै छै कि आबें बोदी वास्तें हुनको लाल दा के द्वार बंद होय गेलों छै, आरो कोय भाय कन एत्ते दिन ठहरी जैवों, है तें हुऐ नै पारें। बेसी-सें-बेसी एक रात, दू रात। तीन-चार रोज तें बस लाले दा कन, आरो आबे वहू द्वार बंद | तें आखिर गेलो होते कहाँ ?

आरो सबमें ओत्तें तें नै, मतर साधो आरो सिद्धी के मंडली में ई बातों के लैके दिन-रात चर्चा होय रहलों छै। जर्ने किसिम से जे-जे अनुमान लगैलों जावै सकै छै, सब लगैलों जाय रहलों छै-

“हमरा तें लागै छै कि आपनों भाय के मॉन-मिजाज के खोज-खबर लैलें आपनों समधियारों में होतै, सीधे लाल दा कन तें जावें नै पारें, वहां से हिनको लालदा के घोर छेवे करें कत्ते दूर, बस कोस भरी, अमर बतैलें छेले, आरो बोदी तें पैदले पाँच कोस बूलें पारें। दिने दिन अपनी बड़की