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१०४ तारा उन्नीस्वीं पुतली

  • तारा उन्नीसवीं पुतली *

खिलखिला कर हंसी और कहने लगी कि ‘ऐ राजा ! अज्ञानी, बावले! पहले मेरी बात सुन, पीछे और विचारकर, जो तू इस सिंहासन पर चरण रक्खेगा तो अ़पराधी होगा, मुद्म पर पांव दिया था राजा विक्रमाजीत ने, तू ने अपने जी में क्या विचारा है? जो यह इराद: करके आया है, मेरा हदव जो है कंवल है, और मधुकर बीरविक्रमाजीत था, तू गोबर का कीड़ा, मुझ पर पांव किस तरह रक्लेगा?” राजा बोला, “सुन बाला! तू ने मुझे गोबर का जीवक्योंकर जाना ?” पुतली बोली सुन राजा ! एक दिन की कथा है कि एक बिराह्मन, सामुद्रिक नाम, सामुद्रिक पढ़ा हुआ था, बन में चखा जाता था, उस के बराबर दुनया में कोई और पंडित न था, अनेक २ भेद विद्य के जानता था, उस ने दरयाफ़त किया, कि इस रस्ते कोई आदमी गया है, जब उस के निशान पांव के देखे, तो उस में ऊर्द्ध रेखा, और कंवख का चिन्ह नज़र आया. तब उस ने अपने जी में विचारा कि कोई राजा नंगे पांव इस राह से गुज़रा है, उस को देखा चाहिये, कि कहां गया है? यह विचार कर उन पाओं के निशान देखता हुआ जब कोस भर पर जा पहुचा, तो उस बन में देखा, कि एक आदमी दर.ख्त से खकड़ियाँ , तोड़कर गट्टड़ बाँध रहा है. बिराह्मन उस के पास जाकर खड़ा हुआ, और पूछा कि तू यहां इस बन में कब से आया है? बुद्ध बोला कि महाराज ! मैं दो घड़ी रात रहे से आया हूं, तब