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तारा उन्नीसवीं पुतली १०५ बिराह्मन ने पूछा कि तू ने किसी को इस राह से जाते देखा है कि नहीं? उस्ने कहा, कि मैं जिस समैं से आया हूं, इस वन में मनुष्य का तो ज़िक्र क्या है, कोई पंछी भी नज़र नहीं आया. फिर उस बिराह्मन ने कहा, देखूं तेरा पांव, पांव उस ने आगे रख दिया, और बिराह्मन ने सब चिन्ह देखे. देख कर अपने जी में सोचने लगा, कि वह सबब क्या है कि सब लक्षन इस में राजा के हैं, और यह इतना दुखी क्यों है? फिर इस्ने पूछा कि कितने दिनों से तू यह काम करता है? उस ने कहा जब से मैं ने होश संभाला है, तब से यही उद्यम कर के खाता हूं, और राजा वीरबिक्रमाजीत के नगर में रहता हूं * बिराह्मन ने पूछा तू बहुत दुख पाता है? वुह बोला महाराज ! यह भगवान की इच्छा है कि किसी को हाथी पर चढ़ावे, और किसी को पैदल फिरावे, किसी को धन, दौलत, बिन मांगे दे, और किसी को भीख मांगे टुकड़ा भी न मिले, कोई सुख में चैन करता है, कोई दुख में बौरा रहा है, भगवान की गति नहीं जानी जाती कौन रूप किस में रचा है, और जो करम में लिख दिया है सो मनुष्य को भुगतना होता है; दुख, सुख, उस के हाथ है, इस में किसी का कुछ ज़ोर नहीं चलता * उस से ये बातें सुन और वुह चिन्ह देख बिराह्मन ने अपने जी में अचरज माना, कहा कि मैं ने बड़ी मिह.नत से विद्या पढ़ी थी, सो मेरा श्रम ख्टथा गया, और सामुद्रिक में जो बिध लिखी है पुरुष के लघन देखने की, सो झूठ टहरी, और यह उम्र हम ने अपनी बे फायद: गंवाई. यह कह मन में मखोन हो, बिचार करता राजा के निकट चला, कि जाकर उस का भी