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अनुरोधवती इकोखवों पुतली मन में बिचारा, कि हो न हो वह बिरही यही है, किस लिये कि मुंह पीखा,आँसू जारी, तन चीन, मन मखीज, हो रहा है. यह तो यह विचार कर रही थी,कि वह ब्राह्मण वहाँ आबैठा, और एक बार हाथ कामकंदखा२! पुकार उठा. चट उसने जा उसका हाथ पकड़ लिया और कहा मैं तेरे ढूंढने के लिये राजा की आज्ञा पाके आई हूं, तू उठ, मेरे साथ जल्दी चल, तेरा मनोरथ पूरा होगा, तेरे दुख से राजा निपट दुखी है * यह सुनतेही, उसके साथ वह हो लिया, उसे लिये हुए वह राजा के सनमुख पहुंच कर कहने लगी महाराज ! यह वही वियोग है, जिसके लिये आपने यह दुख पाया है. तब राजा ने उस बिराह्मन से पूछा, कि तू किस के वियोग से ऐसा व्याकुल हो रहा है, मेरे आगे कह ? तब उसने एक अाह भर कर कहा महाराज ! कामकदखा के वियोग में मेरी यह गति हुई है, । वह राजा कामसेन के पास है, तू धर्मात्मा है, और मैं तेरे पास आया हूँ, तू मुझे उसको दिखा दे तो जी दान दे; यह सुनते ही राजा हस कर बोला सुन बिराह्मण ! वह वैश्या है, तूने उसके प्रेम में अपना सब धर्म, कर्म छोड़ा ,यह तुझे उचित नहीं है. माधो ने कहा महाराजा ! प्रेम का पंथ निराला है, जो नर प्रेम करते हैं, सो अपना तन, मन, धर्म, कर्म, सब समर्पण करते हैं, प्रेम की अकथ कहानी है, मुझसे कही नहीं जाती * राजा ने ये बातें सुनी, और उसे अपने साथ ले, मंदिर में गया, और सब रानियों को आज्ञा की, कि तुम बनाव, सिंगार कर के आओ. रानियां सब सिंगार कर आई, और उस बिराह्मण से राजा ने कहा, जिसे तुम्हारी इच्छा हो,