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१४१  जैखची पश्चसवीं पुतली


राजा बीर बिक्रमाजीत सुनते हैं बड़ा दानी है, उसके पास अपनी कामना जो ले गया है, वह खाली हाथ नहीं फिरा, और अपने मकसद को पज़चा है* ये बातें कर वह राजा के पास चला, और गनेश को मना राजा के सनमुख जा खड़ा रहा, राजा ने दंडवत की, और वह असिस देकर बोला कि बड़त भूमि फिर आया हूँ, आप का जस मुझे यहां ले आया है, आप इस मत्र्य लोक में इंद्र का औतार हैं और गुन के निधान हैं, आप के बराबर दानी संसार में कोई नहीं, इस समैं में आप दान देने को राजा हरिचंद हैं, तमाम इथिवी में आप ही का जस छा रहा है, और खामी मैं कालिका सुत ई, भाटवंस में आन कर औतार खिया है, अब तुन्हें जाचने आया झं, मेरा मनोरथ पूरन कर दो, मैं ने संसार में फिर कर खूब देखा, कि सिवाय तुम्हारे मेरी आस का पुजाने वाला और कोई नहीं * तब हस कर राजा ने कहा, कि तु अपना मतलब सब मेरे आगे प्रकाश कर के कह, जो मैं तेरी कामना पूरो करूं. भाट ने कहा यों मुझे अपने कर्म का भरोसा नहीं, आप बचन दीजिये तो मैं खातिर जमअ से कई, जब राजा बचन देने लगा तब भाट बोखा कि महाराज ! मुझे मुंह मांगा दान दीजिये, कि अपनी पुची की शादी कर ढूं, बारह बरस की कन्या मेरे घर में बैठी है, इस लिये मैं जाचने आया कई * यह सुन राजा ने हस कर मंची से कहा कि जो यह मांगे वह दूसे दो, फिर उस भाट ने कहा कि महाराज ! जो कुछ आप को देना है सो अपने सनमुख मंगा कर दीजिये, मुझे इस संसार में अब किसी का दूअतिबार नहीं, राजा ने दस लाख रुपये रोक, और हीरे,