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१३७ युद्ध और अहिंसा अहिंसा चाहे कमज़ोरों का शस्त्र हो या बलवानों का, किन्हीं अत्यन्त विशेष परिस्थितियों के अलावा वह सामाजिक के बजाय व्यक्तिगत प्रयोग की ही चीज़ मालूम पड़ती है । मनुष्य अपनी खुद की मुक्ति के लिए प्रयत्न करता रहे; राजनीतिज्ञों का सम्बन्ध तो कारणों, सिद्धान्तों ऑर अल्पसंख्यकों से है । गांधीजी का कहना है कि 'हेर हिटलर को उस साहस के सामने भुकना पड़ेगा जो उसके अपने तूफानी सैनिकों द्वारा प्रदर्शित साहस से निश्चितरूपेण श्रेष्ठ हैं ।' अगर ऐसा होता, तो हम सोचते कि हेर वॉन श्रोसीट्ज़के जैसे मनुष्य की उन्होंने ज़रूर तारीफ की होगी । मगर नाजियों के लिए साहस इसी हालत में गुण मालूम पड़ता है कि जब उनके ध्वपने ही समर्थक उससे काम लें; अन्यत्र वह ‘मार्क्सवादी-यहूदियों की धृष्ठपूर्ण उत्तेजना, हो जाता है । गांधीजी ने इस विषय में कारगर रूप में कुछ करने में बड़े-बड़े राष्ट्रों के असमर्थ होने के कारण अपना नुसख़ा पेश किया है-यह ऐसी असमर्थता है जिसके लिए हम सबको अफ़सौस है और हम सब चाहते हैं कि यह न रहे। यहूदियों को उनकी सहानुभूति से चाहे बड़ा श्राश्वासन मिले, लेकिन उनकी वृद्धि में इससे ज्यादा मदद मिलने की सम्भावना नहीं है। ईसामलीह का उदाहरण अहिंसा का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है और उनकी जिस बुरी तरह मारा गया उससे हमेशा के लिए यह सिद्ध हो गया है कि सांसारिक और भौतिक रूप में यह बड़ी बुरी तरह असफल हो सकती है ।” मैं तो यह नहीं समझता कि पास्टर नीमोलर और दूसरे

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