यह

जादूगर तात्या,फिर,रावसाहब,फीरोजशहा तथा अन्य सहयोगियों के साथ २१ जनवरी

को अलवर के पास सिखार में प्रकट हुआ। अंग्रेज फिर पागलों की तरह उसका पीछा करने लगे। होम्स की सेना के साथ क्रांतिकारियों की एक भिडन्त हुई,जिस में उन्हें हार खानी पडी। सिखार की हार से क्रांतिकारियों की विजय के बारे में,निराशा न हुई- क्योंकि,वह आशा बहुत पहले नश्ट हो चुकी थी। हां,अब प्रतिकार करना पूर्णतया असंभव हो चुका। नर्मदा पार कर बडोदे पर चडाई करने की तात्या की योजना टूट गयी थी,तब व्रकयुद्ध के डंग मे कुछ सुधार करने के प्रस्ताव पर तात्या और रावसाहब सोछ रहे थे और कुछ निश्चय कर तात्या टोपे तथा रावसाहब ने अपनी सेना

से बिदा ली। उसने अपने साथ केवल दो घोडे, एक टटुआ, दो ब्राह्मण रसोईए ओर

एक टहलुवा रखा। अपने इस परीवार के साथ वह गवालियर के सरदार मानसिंग के पास गया,जो पारौन के जंगलमें छिपा हुआ था। मानसिंग ने कहॉ,'तात्या,तुम सेना को छोड आये-अच्छा नही किया,। तात्या का उत्तर था,'चाहे वह अच्छा है या बुरा,मै

तो अब तुम्हारे साथ ही रहने आया हूं। दम-तोड दौरों से अब मै तो उब गया

हुं। तात्या मानसिंग के पास रह रहा है यह समाचार अंग्रेजों के पास पहुंचा। रणमैदान में आमने सामने लडकर उसे पकडने में अंग्रेज असमर्थ रहे। तब उन्होंने अपने स्वाभाविक हथकण्डे से काम लेना,छल कपट और विश्वासवात के नीच साधन,जो चलाना आसान होता है,अमल में लाना तय किया। पहले मानसिंग के पास दूत

भेजा गया और कहा गया, कि यदि मानसिंग स्वयं आत्मसमर्पण कर तात्या को पकडवा दे तो उसे क्षमा बख्शी जायगी और नरवाड की रियासत उसे दे देने का अनुरोध

शिंदे से किया जायगा। यह मानसिंग,जिसने पहले अपने चाचा को अंग्रेजों को सौप

देने तक नीचता की थी,लालच मे फस और अंग्रेजों के वश में हो गया। उसने

तात्या को बताया,